Monday 24 September 2012

मैंने टाइपिंग सीखी ।

बात तब की है जब मेरे पास कंप्यूटर नहीं था और कॉलेज जाकर ही कंप्यूटर के दर्शन होते थे । वे कंप्यूटर अधिक तेज गति से काम तो नहीं करते थे लेकिन नौसिखियों के लिए उपयुक्त थे । ऑफिस के अलावा उन कंप्यूटर में ताश पत्ती के खेल ही थे । एम् . एस. वर्ड में थोडा - बहुत टाइपिंग कर लिया करते थे मगर हर एक अक्षर के लिए कीबोर्ड की ओर ही देखा करते थे । मुझे अंदाजा नहीं था कि टाइप करने  की गति क्या हो सकती है  ।

एक दिन मैं मेरे मकान मालिक के कमरे में गया हुआ था तो उनका कंप्यूटर चालू था और वे टाइपिंग का काम ही कर रहे थे । उनकी नजर केवल स्क्रीन पर ही थी । कीबोर्ड की ओर झाँक भी नहीं रहे थे । उनकी उँगलियाँ इस तरह चल रही थीं जैसे अदनान सामी की उँगलियाँ पियानो पर । मेरी आँखें खुली की खुली रह गयीं । इस गति से भी टाइपिंग की जा सकती है !!

मेरा माथा ठनका .. सोचा अगर ये इस गति से टाइपिंग कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं । मैं किसी मामले में इनसे कम थोड़े ही हूँ । फिर क्या था .. जोड़ - तोड़ करके कॉलेज के कंप्यूटर में टाइपिंग मास्टर 99 डलवाया और शुरू हो गया । जब मेरे अन्य दोस्त ताश पत्ती में मशगूल रहते तो भी मैं टाइपिंग मास्टर के अलग - अलग अभ्यास करता रहता था । मेरे कई दोस्त मुझसे अच्छी टाइपिंग कर लेते थे लेकिन कीबोर्ड पर देखकर , लेकिन मुझे कीबोर्ड पर देखना गंवारा नहीं था क्योंकि मैंने मकान मालिक को बिना कीबोर्ड की ओर देखे ही टाइपिंग करते देखा था ।

शुरूआती हफ्ते में तो 10 -12 शब्द प्रति मिनट से ही टाइपिंग कर पाया लेकिन एक माह में ही यह गति 30 -35 तक पहुँच गयी लेकिन अभी वर्तनी की गलतियाँ हो रहीं थीं जिससे यह स्पष्ट होता है कि मुझे और अभ्यास की आवश्यकता थी । मैंने अभ्यास जारी रखा और दो महीनों के बाद मैं बिना ग़लती के ही अच्छी गति से टाइपिंग करने लगा था ।

इस लेख का अभिप्राय आत्मप्रशंसा नहीं है अपितु यह प्रदर्शित करना है कि " मैं क्यों नहीं" से हम कुछ भी करने से वंचित नहीं हो सकते ।

Wednesday 19 September 2012

स्वविवेक : एक अमूल्य निधि

किसी और ने  ग़लत काम किया किन्तु  उस पर किसी का ध्यान नहीं गया , इसका यह अर्थ नहीं होता कि वह ग़लत नहीं है । हम भी उसकी देखा - देखी करके वैसा ही काम करें और खुद को सही साबित करने के लिये पहले वाले ग़लत को साक्ष्य बनायें , यह  तर्कसंगत तो नहीं कहा जा सकता । ऐसा करने से हम न केवल पहले वाली ग़लती को छिपा रहे हैं अपितु उसका समर्थन करके उसे और भी अधिक  सशक्त बना रहे हैं । मनुष्य होने के नाते हमारे पास स्वविवेक रुपी अमूल्य निधि है , जिसका हमें सोच - विचारकर उपयोग करना चाहिए ।

एक ताज़ी और एक बासी रोटी में से हम ताज़ी रोटी का चयन किस प्रकार कर लेते हैं ! बस में बैठने पर खिड़की वाली सीट का चयन और सब्जी खरीदते समय कभी सड़े हुए आलू न उठाना ... और भी ऐसे कई उदहारण हमारे दैनिक जीवन में घटित होते हैं जो कि स्वविवेक से ही सम्बंधित हैं ।

किन्तु एक छोटे से लाभ के लिए हम सब कुछ जानते हुए भी स्वविवेक को सुप्तावस्था में भेज देते हैं और बड़ा अपराध कर बैठते हैं । हद  तो तब हो जाती है जब हम कुतर्कों का सहारा लेकर उसे जायज ठहराने की पुरजोर कोशिश करने लगते हैं ।