Saturday, 15 December 2012

समाज, शिक्षक और संरक्षक

हमारे समाज में शिक्षक को बड़ी ही इज्जत की नजर से देखा जाता है क्योंकि उसका दर्जा है ही इतना ऊँचा । कबीरदास जी भी गुरु को ईश्वर से पहले पूजनीय मानते हैं " बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियो बताय " । किन्तु इससे थोडा हटकर एक अन्य शब्द है " अध्यापक " । ये लोग केवल अध्यापन तक ही सीमित रहते हैं । इस वर्ग के लोग मानदेय को ध्यान में रखकर अपना कर्तव्य केवल पाठ्यक्रम पूरा करना ही मानते हैं । इन्हें शिष्य के नैतिक विकास से कोई सरोकार नहीं होता । ये यह तो पढ़ा देते हैं कि रास्ते में पड़े पत्थर से ठोकर लग सकती है किन्तु यह नहीं सिखाते कि उस पत्थर को हटा देना चाहिए । एक अध्यापक होने के लिए अनेक प्रमाण पत्रों की आवश्यकता हो सकती है किन्तु बिना प्रमाण पत्र के भी एक शिक्षक का दायित्व निभाया जा सकता है , आवश्यकता है तो केवल अंतर को समझने की और विस्तृत रूप को स्वीकारने की ।

अब मैं उस मुद्दे पर आता हूँ जिस मनसा से मैं यह लेख लिख रहा हूँ ।

कुछ अपवाद समुदायों को छोड़कर ' नशा ' आज हर समाज के लिये एक बड़ी चुनौती है । छोटे बच्चे अध्यापकों की जूठी बीड़ी  के टुकड़ों को लेकर विद्यालय की दीवार के पीछे धुँआ उड़ाते हुये अक्सर देखे जाते रहे हैं । अब जमाना दो कदम आगे है , अब बच्चे जूठी बीड़ी नहीं चुगते । अब वो खुद के जेबखर्च से किस्म - किस्म की सिगरेट का बंदोबस्त कर लेते हैं । मध्यावकाश के समय अध्यापकों को स्टाफ रूम में या किसी भी खुली जगह पर धूम्रपान करते देखा जा सकता है , यह कोई दुर्लभ प्रजाति नहीं है । अनेक अवसरों पर तो धूम्रपान सामग्री बच्चों से ही मँगवायी जाती है । प्रश्न यह है कि क्या विद्यालय में इस प्रकार का वातावरण उत्पन्न करना उचित है ? 

अध्यापकों को कई बार भाषणों या कक्षाओं में यह कहते हुए भी सुना जा सकता है कि " यदि मैं धूम्रपान करता हूँ , जुआ खेलता हूँ या शराब पीता हूँ , तो मैं अपने छात्रों से कभी भी ऐसा करने को नहीं कहूँगा ।" मास्टरजी , एक बात ध्यान रखिये कि बच्चे आपके कहने की बजाय आपके करने से अधिक प्रभावित होते हैं ।

युवाओं में नशे के मामलों की बढ़ोतरी के लिये केवल अध्यापक ही जिम्मेदार नहीं हैं , माता - पिता की भी इसमें बराबर की भागीदारी है । क्या एक बाप अपने बेटे को दुकान पर तम्बाकू , गुटखा या अन्य निषेध्य सामग्री लाने के लिये नहीं भेजता ! क्या आप घर में शराब की बोतलें सहेजकर नहीं रखते ? यदि हाँ , तो आप अपने बच्चों को नशेड़ी बनने के लिये खुला निमंत्रण दे रहे हैं ।

समाज सुधार के लिये कर्ता की बजाय कारक को समाप्त करना आवश्यक है । अब यहाँ दो तर्क हैं - पहला तो यह कि यदि नशे की सामग्री ही उपलब्ध न हो तो नशेड़ी नशा नहीं कर पायेगा और दूसरा तर्क यह कि यदि इन्सान नशा ही न करे तो सामग्री की उपलब्धता स्वतः ही व्यर्थ हो जायेगी ।

पूरी तरह सड़ चुके सेब को फिर से खाने योग्य नहीं बनाया जा सकता किन्तु आधे सड़े सेब का आधा हिस्सा काम में लाया जा सकता है और यदि समय रहते सावधानी बरती जाय तो अन्य सेबों को सड़ने से बचाया जा सकता है । सावधानी बरते कौन ? सेब तो खुद को बचाने से रहे । बाग़ में तो यह दायित्व माली का है और बाजार में दुकानदार का । अच्छी कीमत पाने के लिये उचित देखरेख आवश्यक है अन्यथा नुकसान  होना लाजमी है । यह तो सर्वविदित है ही कि एक सेब पूरी टोकरी के सेबों को सडा सकता है ।

निष्कर्ष में यही कहना चाहता हूँ कि यदि स्वस्थ समाज की कामना की जाती है तो स्वस्थ मानसिकता अत्यावश्यक है ।

प्रवेश 

  

Monday, 24 September 2012

मैंने टाइपिंग सीखी ।

बात तब की है जब मेरे पास कंप्यूटर नहीं था और कॉलेज जाकर ही कंप्यूटर के दर्शन होते थे । वे कंप्यूटर अधिक तेज गति से काम तो नहीं करते थे लेकिन नौसिखियों के लिए उपयुक्त थे । ऑफिस के अलावा उन कंप्यूटर में ताश पत्ती के खेल ही थे । एम् . एस. वर्ड में थोडा - बहुत टाइपिंग कर लिया करते थे मगर हर एक अक्षर के लिए कीबोर्ड की ओर ही देखा करते थे । मुझे अंदाजा नहीं था कि टाइप करने  की गति क्या हो सकती है  ।

एक दिन मैं मेरे मकान मालिक के कमरे में गया हुआ था तो उनका कंप्यूटर चालू था और वे टाइपिंग का काम ही कर रहे थे । उनकी नजर केवल स्क्रीन पर ही थी । कीबोर्ड की ओर झाँक भी नहीं रहे थे । उनकी उँगलियाँ इस तरह चल रही थीं जैसे अदनान सामी की उँगलियाँ पियानो पर । मेरी आँखें खुली की खुली रह गयीं । इस गति से भी टाइपिंग की जा सकती है !!

मेरा माथा ठनका .. सोचा अगर ये इस गति से टाइपिंग कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं । मैं किसी मामले में इनसे कम थोड़े ही हूँ । फिर क्या था .. जोड़ - तोड़ करके कॉलेज के कंप्यूटर में टाइपिंग मास्टर 99 डलवाया और शुरू हो गया । जब मेरे अन्य दोस्त ताश पत्ती में मशगूल रहते तो भी मैं टाइपिंग मास्टर के अलग - अलग अभ्यास करता रहता था । मेरे कई दोस्त मुझसे अच्छी टाइपिंग कर लेते थे लेकिन कीबोर्ड पर देखकर , लेकिन मुझे कीबोर्ड पर देखना गंवारा नहीं था क्योंकि मैंने मकान मालिक को बिना कीबोर्ड की ओर देखे ही टाइपिंग करते देखा था ।

शुरूआती हफ्ते में तो 10 -12 शब्द प्रति मिनट से ही टाइपिंग कर पाया लेकिन एक माह में ही यह गति 30 -35 तक पहुँच गयी लेकिन अभी वर्तनी की गलतियाँ हो रहीं थीं जिससे यह स्पष्ट होता है कि मुझे और अभ्यास की आवश्यकता थी । मैंने अभ्यास जारी रखा और दो महीनों के बाद मैं बिना ग़लती के ही अच्छी गति से टाइपिंग करने लगा था ।

इस लेख का अभिप्राय आत्मप्रशंसा नहीं है अपितु यह प्रदर्शित करना है कि " मैं क्यों नहीं" से हम कुछ भी करने से वंचित नहीं हो सकते ।

Wednesday, 19 September 2012

स्वविवेक : एक अमूल्य निधि

किसी और ने  ग़लत काम किया किन्तु  उस पर किसी का ध्यान नहीं गया , इसका यह अर्थ नहीं होता कि वह ग़लत नहीं है । हम भी उसकी देखा - देखी करके वैसा ही काम करें और खुद को सही साबित करने के लिये पहले वाले ग़लत को साक्ष्य बनायें , यह  तर्कसंगत तो नहीं कहा जा सकता । ऐसा करने से हम न केवल पहले वाली ग़लती को छिपा रहे हैं अपितु उसका समर्थन करके उसे और भी अधिक  सशक्त बना रहे हैं । मनुष्य होने के नाते हमारे पास स्वविवेक रुपी अमूल्य निधि है , जिसका हमें सोच - विचारकर उपयोग करना चाहिए ।

एक ताज़ी और एक बासी रोटी में से हम ताज़ी रोटी का चयन किस प्रकार कर लेते हैं ! बस में बैठने पर खिड़की वाली सीट का चयन और सब्जी खरीदते समय कभी सड़े हुए आलू न उठाना ... और भी ऐसे कई उदहारण हमारे दैनिक जीवन में घटित होते हैं जो कि स्वविवेक से ही सम्बंधित हैं ।

किन्तु एक छोटे से लाभ के लिए हम सब कुछ जानते हुए भी स्वविवेक को सुप्तावस्था में भेज देते हैं और बड़ा अपराध कर बैठते हैं । हद  तो तब हो जाती है जब हम कुतर्कों का सहारा लेकर उसे जायज ठहराने की पुरजोर कोशिश करने लगते हैं ।