Thursday 16 January 2014

सुखी कौन ?

इसे महज वैचारिक विकृति ही कहा जा सकता है कि आज सुख का पर्याय पद और पैंसे की प्राप्ति से लगाया जाता है । दुनिया की नजर में या तो वह व्यक्ति सुखी है जिसके पास उच्च पद है या वह जिसके पास खूब पैंसा है । यह बात किसी से छिपी नहीं है कि आज पैंसा और पद दोनों ही ईमानदारी की अपेक्षा बेईमानी से सुलभ है ।

एक व्यक्ति जिसके पास पैंसा तो बहुत है या वह किसी उच्च पद पर आसीन है लेकिन वो फिर भी सुखी नहीं है । वो चिंतित है अपने बच्चों के भविष्य को लेकर । उसकी संपत्ति उसके बेटे को इंजीनियरिंग की डिग्री नहीं दिला सकती । अपार सम्पदा होने के उपरांत भी उसके बेटे को इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल पा रहा है और यदि धनप्रभाव से प्रवेश मिल भी गया तो  बेटे के पास इतनी योग्यता नहीं है कि वह उस परीक्षा को पास कर सके । इस उदहारण के अपवाद भी निश्चय ही होंगे । यहाँ तात्पर्य यह नहीं है कि पैंसे वाले या उच्च पदाधिकारी की संतान निकम्मी होती है । धनिक धन के अर्जन से अधिक उसकी सुरक्षा की समस्या से चिंतित रहता है और जहाँ चिंता का समावेश हो वहाँ सुख की कल्पना कैसे की जा सकती है !

क्लेश्युक्त जीवन भी सुखी नहीं कहा जा सकता है । धन - संपत्ति से भौतिक सुविधाएँ अर्जित की जा सकती हैं आत्मिक शांति नहीं । इन्सान आलिशान भवन खरीद सकता है किन्तु परिवार नहीं , मखमल की सेज खरीद सकता है - नींद नहीं , स्वादिष्ट भोजन खरीद सकता है - भूख नहीं , कई नौकर रख सकता है - किन्तु रिश्ते नहीं खरीद सकता । सुखी का अर्थ विलासिता से कदापि नहीं लगाया जा सकता ।

वहीं दूसरी ओर एक मजदूर की संतान अभावों में जीवन यापन करते हुये  भी उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर लेती है, उच्च पदों पर आसीन होकर नयी मिसाल कायम करती है और समाज के लिये प्रेरणास्रोत बनती है । संतान के शिखर पर पहुँचने की ख़ुशी पिता के सीने का माप बढा  देती है । यह ख़ुशी मखमल की सेज पर सोने के सुख से कहीं अधिक स्थायी और आनंददायक है ।

मजदूर सुबह से शाम तक अपने काम में तल्लीन रहता है । उसे केवल अपने काम से मतलब है , उसे कुछ भी खोने या चोरी हो जाने का डर  नहीं है । जो भी कमाता है वो अगला सूरज दिखाने के लिये ही पर्याप्त होता है । उसे किसी से प्रतिस्पर्धा नहीं है और ना ही उसे भय है किसी से पिछड़ने का । जिसे न कुछ खोने का डर और ना ही पिछड़ने की चिंता , उससे अधिक सुखी भला कौन हो सकता है !!

इस लेख का तात्पर्य यह बिलकुल भी नहीं है कि हमें धन संचय नहीं करना चाहिये या प्रतियोगी नहीं होना चाहिये अपितु यह है कि भौतिक सुख की अपेक्षा आत्मिक सुख चिरस्थायी और आनंददायक  है ।  ~ प्रवेश ~

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